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राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद पाठ का सार और प्रश्न उत्तर






पाठ का सार

राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद

CBSE Class-10 Hindi

NCERT Solutions Kshitij Chapter – 2

Tulsidas

शिवधनुष टूटने के साथ सीता स्वयंवर की खबर मिलने पर परशुराम जनकपुरी में स्वयंवर स्थान पर आ जाते है। हाथ में फरसा लिए क्राधित हो धनुष तोड़ने वाले को सामने आने, सहस्त्रबाहु की तरह दडिंत होने और न आने पर वहाँ उपस्थित सभी राजाओं को मारे जाने की धमकी देते हैं। उनके क्रोध को शांत करने के लिए राम आगे बढ़कर कहते हैं कि धनुष-भंग करने का बड़ा काम उनका कोई दास ही कर सकता है। परशुराम इस पर और क्रोधित होते हैं कि दास होकर भी उसने शिवधनुष को क्यों तोड़ा। यह तो दास के उपयुक्त काम नहीं है। लक्ष्मण परशुराम को यह कहकर और क्रोधित कर देते हैं कि बचपन में शिवधनुष जैसे छोटे कितने ही धनुषों को उन्होंने तोड़ा, तब वे मना करने क्यो नहीं आए आरै अब जब पुराना आरै कमजोर धनुष् श्रीराम के हाथों में आते ही टूट गया तो क्यों क्रोधित हो रहे हैं।

परशुराम जब अपनी ताकत से ध्रती को कई बार क्षत्रियों से हीन करके बार ह्मणों को दान देने और गर्भस्थ शिशुओं तक के नाश करने की बात बताते हैं तो लक्ष्मण उन पर शूरवीरों से पाला न पड़े जाने का व्यंग्य करते हैं। वे अपने कुल की परंपरा में स्त्री, गाय और ब्राह्मण पर वार न करके अपकीर्ति से बचने की बात करते हैं तो दूसरी तरफ स्वयं को पहाड़ और परशुराम को एक फूंक सिद्ध करते हैं। ऋषि विश्वामित्रा परशुराम के क्रोध को शांत करने के लिए लक्ष्मण को बालक समझकर माफ करने का आगह करते है। वे समझाते है। कि राम आरै लक्ष्मण की शक्ति का परशुराम को अंदाजा नहीं है। अंत में लक्ष्मण के द्वारा कही गई गुरुऋण उतारने की बात सुनकर वे अत्यंत क्रुद्ध होकर फरसा सँभाल लेते हैं। तब सारी सभा में हाहाकार मच जाता है आरै तब श्रीराम अपनी मधुर वाणी से परशुराम की क्रोध रूपी अग्नि को शांत करने का प्रयास करते हैं।


कवि परिचय

तुलसीदास

इनका जन्म उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले के राजापुर गाँव में सन 1532 में हुआ था। तुलसी का बचपन संघर्षपूर्ण था। जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही माता-पिता से उनका बिछोह हो गया। कहा जाता है की गुरुकृपा से उन्हें रामभक्ति का मार्ग मिला। वे मानव-मल्यों के उपासक कवि थे। रामभक्ति परम्परा में तुलसी अतुलनीय हैं।

प्रमुख कार्य रचनाएँ – रामचरितमानस, कवितावली, गीतावली, दोहावली, कृष्णगीतावली, विनयपत्रिका।






राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद

भावार्थ

(1)

नाथ संभूधनु  भंजनिहारा, होइहि केउ एक दास तुम्हारा।।

आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।

सेवक सो जो करै सेवकाई। अरिकरनी करि करिअ लराई।।

सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।।

सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥

सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अवमाने।

बहु धनुहीं तोरी लरिकाई। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाई।।

एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥

रे नृप बालक काल बस बोलत तोहि न सँभार।

धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार।।

अर्थ – परशुराम के क्रोध को देखकर श्रीराम बोले – हे नाथ! शिवजी के धनुष को तोडने वाला आपका कोई एक दास ही होगा। क्या आज्ञा है. मुझसे क्यों नहीं कहते। यह सुनकर मुनि क्रोधित होकर बोले की सेवक वह होता है जो सेवा करे, शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही करनी चाहिए। हे राम! सुनो, जिसने शिवजी के धनुष को तोड़ा है, वह सहस्रबाहु के समान मेरा शत्रु है। वह इस समाज को छोड़कर अलग हो जाए, नहीं तो सभी राजा मारे जाएँगे। परशुराम के वचन सुनकर लक्ष्मणजी मुस्कुराए और उनका अपमान करते हुए बोले- बचपन में हमने बहुत सी धनुहियाँ तोड़ डालीं, किन्तु आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजा स्वरूप परशुरामजी क्रोधित होकर कहने लगे – अरे राजपुत्र! काल के वश में होकर भी तुझे बोलने में कुछ होश नहीं है। सारे संसार में विख्यात शिवजी का यह धनुष क्या धनुही के समान है?

विशेष

1. यह काव्यांश अवधी भाषा में लिखित है।

2. इस चापाई में शुरू में शातं रस आरै बाद में रा, रस का पयोग हुआ है।

3. काह कहिअ किन, सेवकु सो, करि करिअ, सहसबाह सम सो, बिलगाउ बिहाइ में अनुप्रास अलंकार की छटा दिखाई देती है।

4. ‘सहसबाहु सम सो रिपु मोरा’ और ‘धनुही सम त्रिपुरारिधनु’ में उपमा अलंकार है।

 

(2)

लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।।

का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें।।

छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू।।

बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।।

बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोह।।

बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही।।

भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।।

सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा।।

मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।

गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।

अर्थ – लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे देव! सुनिए, हमारे जान में तो सभी धनुष एक से ही हैं। पुराने धनुष के तोड़ने में क्या हानि-लाभ! श्री रामचन्द्रजी ने तो इसे नवीन के धोखे से देखा था। परन्तु यह तो छूते ही टूट गया, इसमें रघुनाथजी का भी कोई दोष नहीं है। मुनि! आप बिना ही कारण किसलिए क्रोध करते हैं? परशुरामजी अपने फरसे की ओर देखकर बोले- अरे दुष्ट! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना। मैं तुझे बालक जानकर नहीं मारता हूँ। अरे मूर्ख! क्या तू मुझे निरा मुनि ही जानता है। मैं बालब्रह्मचारी और अत्यन्त क्रोधी हूँ। क्षत्रियकुल का शत्रु विश्वभर में विख्यात हूँ। अपनी भुजाओं के बल से मैंने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया और बहुत बार उसे ब्राह्मणों को दे डाला। हे राजकुमार! सहस्रबाहु की भुजाओं को काटने वाले मेरे इस फरसे को देख। अरे राजा के बालक! तू अपने माता-पिता को सोच के वश न कर। मेरा फरसा बड़ा भयानक है, यह गर्भों के बच्चों का भी नाश करने वाला है।


विशेष

1. इसमें अवधी भाषा का और चैपाई छंद का प्रयोग हुआ है।

2. इसमें मुख्य रूप से रौद्र रस की प्रधनता है।

3. इसमें तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है।

4. ‘सठ सुनेहि सुभाउ’, ‘बालक बोलिबधौं’, ‘बाल बह्मचारी’, ‘भुजबल भूमि भूप’ तथा ‘बिपुल बार’ में अनुप्रास अलंकार की निराली छटा है।

(3)

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी।।

पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूंकि पहारू।।

इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं।।

देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।

भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी।

सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सराई।।

बधे पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें।।

कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा।।

जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।

सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर।।

अर्थ – लक्ष्मणजी हँसकर कोमल वाणी से बोले- अहो, मुनीश्वर आप अपने को बड़ा भारी योद्धा समझते हैं। बार-बार मुझे कुल्हाड़ी दिखाते हैं। फूंक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं। यहाँ कोई कुम्हड़े की बतिया (बहुत छोटा फल) नहीं है, जो तर्जनी (अंगूठे की पास की) अँगुली को देखते ही मर जाती हैं। कुठार और धनुष-बाण देखकर ही मैंने कुछ अभिमान सहित कहा था। भृगुवंशी समझकर और यज्ञोपवीत देखकर तो जो कुछ आप कहते हैं, उसे मैं क्रोध को रोककर सह लेता हूँ। देवता, ब्राह्मण, भगवान के भक्त और गो- इन पर हमारे कुल में वीरता नहीं दिखाई जाती है। क्योंकि इन्हें मारने से पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अपकीर्ति होती है, इसलिए आप मारें तो भी आपके पैर ही पड़ना चाहिए। आपका एक-एक वचन ही करोड़ों वज्रों के समान है। धनुष-बाण और कुठार तो आप व्यर्थ ही धारण करते हैं। इन्हें देखकर मैंने कुछ अनुचित कहा हो, तो उसे हे धीर महामुनि! क्षमा कीजिए। यह सुनकर भृगुवंशमणि परशुरामजी क्रोध के साथ गंभीर वाणी बोले।







विशेष

1. यह काव्यांश अवधी भाषा में लिखित है।

2. इस चापाई में शुरू में शातं रस आरै बाद में रा, रस का पयोग हुआ है।

3. काह कहिअ किन, सेवकु सो, करि करिअ, सहसबाह सम सो, बिलगाउ बिहाइ में अनुप्रास अलंकार की छटा दिखाई देती है।

4. ‘सहसबाहु सम सो रिपु मोरा’ और ‘धनुही सम त्रिपुरारिधनु’ में उपमा अलंकार है।

 

(4)

कौसिक सुनहु मंद यह बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु।।

भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू।।

काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं।।

तुम्ह हटकहु जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा।।

लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा।।

अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी।।

नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू।।

बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।।

सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।

बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु।।

अर्थ – हे विश्वामित्र! सुनो, यह बालक बड़ा कुबुद्धि और कुटिल है, काल के वश होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंश रूपी पूर्ण चन्द्र का कलंक है। यह बिल्कुल उद्दण्ड, मूर्ख और निडर है। अभी क्षण भर में यह काल का ग्रास हो जाएगा। मैं पुकारकर कहे देता हूँ, फिर मुझे दोष नहीं देना। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो, तो हमारा प्रताप, बल और क्रोध बतलाकर इसे मना कर दो। लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुनि! आपका सुयश आपके रहते दूसरा कौन वर्णन कर सकता है? आपने अपने ही मुँह से अपनी करनी अनेकों बार बहुत प्रकार से वर्णन की है। इतने पर भी संतोष न हुआ हो तो फिर कुछ कह डालिए। क्रोध रोककर असह्य दुःख मत सहिए। आप वीरता का व्रत धारण करने वाले, धैर्यवान और क्षोभरहित हैं। गाली देते शोभा नहीं पाते। शूरवीर तो युद्ध में शूरवीरता का प्रदर्शन करते हैं, कहकर अपने को नहीं जनाते। शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर कायर ही अपने प्रताप की डींग मारा करते हैं।

विशेष

1. इसमें अवधी भाषा का और चैपाई छंद का प्रयोग हुआ है।

2. इसमें मुख्य रूप से रौद्र रस की प्रधनता है।

3. इसमें तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है।

(5)

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा।।

सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा।।

अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू।

बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा।।

कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू।।

खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही।।

उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें।।

न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरे।।

गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।

अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ।।

अर्थ – आप तो मानो काल को हाँक लगाकर बार-बार उसे मेरे लिए बुलाते हैं। लक्ष्मणजी के कठोर वचन सुनते ही परशुरामजी ने अपने भयानक फरसे को सुधारकर हाथ में ले लिया और बोले – अब लोग मुझे दोष न दें। यह कड़वा बोलने वाला बालक मारे जाने के ही योग्य है। इसे बालक देखकर मैंने बहुत बचाया, पर अब यह सचमुच मरने को ही आ गया है। विश्वामित्रजी ने कहा- अपराध क्षमा कीजिए। बालकों के दोष और गुण को साध लोग नहीं गिनते। परशुरामजी बोले – तीखी धार का कठार, मैं दयारहित और क्रोधी और यह गुरुद्रोही और अपराधी मेरे सामने- उत्तर दे रहा है। इतने पर भी मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ, सो हे विश्वामित्र! केवल तुम्हारे प्रेम से, नहीं तो इसे इस कठोर कुठार से काटकर थोड़े ही परिश्रम से गुरु से उऋण हो जाता। विश्वामित्रजी ने हृदय में हँसकर कहा – परशुराम को हरा ही हरा सूझ रहा है (अर्थात सर्वत्र विजयी होने के कारण ये श्री रामलक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं, किन्तु यह फौलाद की बनी हुई खाँड़ है, रस की खाँड नहीं है जो मुँह में लेते ही गल जाए। खेद है, मुनि अब भी बेसमझ बने हुए हैं, इनके प्रभाव को नहीं समझ रहे हैं।

विशेष

1. इसमें अवधी भाषा का और चैपाई छंद का प्रयोग हुआ है।

2. इसमें मुख्य रूप से रौद्र रस की प्रधनता है।

3. इसमें तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है।

(6)

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहिं जान बिदित संसारा।।

माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें।।

सो जन हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा।।

अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।।

सुनि कटु वचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा।।

भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपदोही।।

मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाढ़े।।

अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे।।

लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।

बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु।।

अर्थ – लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुनि! आपके प्रेम को कौन नहीं जानता? वह संसार भर में प्रसिद्ध है। आप माता-पिता से तो अच्छी तरह उऋण हो ही गए, अब गुरु का ऋण रहा, जिसका जी में बड़ा सोच लगा है। वह मानो हमारे ही मत्थे काढ़ा था। बहुत दिन बीत गए, इससे ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब किसी हिसाब करने वाले को बुला लाइए, तो मैं तुरंत थैली खोलकर दे दूँ। लक्ष्मणजी के कड़वे वचन सुनकर परशुरामजी ने कुठार संभाला। सारी सभा हाय-हाय! करके पुकार उठी। लक्ष्मणजी ने कहा- हे भृगुश्रेष्ठ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं? पर हे राजाओं के शत्रु ! मैं ब्राह्मण समझकर बचा रहा हूँ । आपको कभी रणधीर बलवान वीर नहीं मिले हैं। हे ब्राह्मण देवता ! आप घर ही में बड़े हुए हैं। यह सुनकर ‘अनुचित है, अनुचित है’ कहकर सब लोग पुकार उठे। तब श्री रघुनाथजी ने इशारे से लक्ष्मणजी को रोक दिया। लक्ष्मणजी के उत्तर से, जो आहुति के समान थे, परशुरामजी के क्रोध रूपी अग्नि को बढ़ते देखकर रघुकुल के सूर्य श्री रामचंद्रजी जल के समान शांत करने वाले वचन बोले।







विशेष

1. इसमें अवधी भाषा का और चैपाई छंद का प्रयोग हुआ है।

2. इसमें मुख्य रूप से रौद्र रस की प्रधनता है।

3. इसमें तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है।


कठिन शब्दों के अर्थ

1. भंजनिहारा – भंग करने वाला

2. रिसाइ – क्रोध करना

3. रिपु – शत्रु

4. बिलगाउ – अलग होना

5. अवमाने – अपमान करना

6. लरिकाई – बचपन में

7. परसु – फरसा

8. कोही – क्रोधी

9. महिदेव – ब्राह्मण

10.बिलोक – देखकर

11.अर्भक – बच्चा

12.महाभट – महान योद्धा

13.मही – धरती

14.कुठारु – कुल्हाड़ा

15.कुम्हड़बतिया – बहुत कमजोर

16.तर्जनी – अंगूठे के पास की अंगुली

17.कुलिस – कठोर

18.सरोष – क्रोध सहित

19.कौसिक – विश्वामित्र

20.भानुबंस – सूर्यवंश

21.निरंकुश – जिस पर किसी का दबाब ना हो।

22.असंकू – शंका सहित

23.घालुक – नाश करने वाला

24.कालकवलु – मृत

25.अबुधु – नासमझ

26.हटकह – मना करने पर

27.अछोभा – शांत

28.बधजोगु – मारने योग्य

29.अकरुण – जिसमे करुणा ना हो

30.गाधिसूनु – गाधि के पुत्र यानी विश्वामित्र

31.अयमय – लोहे का बना हुआ

32.नेवारे – मना करना

33.ऊखमय – गन्ने से बना हुआ

34.कृसानु – अग्नि







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NCERT Solutions Kshitij Chapter – 2

Tulsidas

प्रश्न 1. परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने के लिए कौन-कौन से तर्क दिए ?

उत्तर:- परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने पर निम्नलिखित तर्क दिए –

1. बचपन में न जाने हमने कितने ही धनुष तोड़े किन्तु किसी ने कभी क्रोध नहीं किया ,इस धनुष से आपको विशेष लगाव क्यों हैं?

2. हमें यह असाधारण शिव धुनष साधारण धनुष की भाँति ही लगा।

3. श्री राम ने इसे तोड़ा नहीं बस उनके छूते ही धनुष स्वत: टूट गया।

4. इस धनुष को तोड़ते हुए उन्होंने किसी के लाभ व हानि के विषय में नहीं सोचा था। इस धनुष को तोड़ने में राम का दोष नहीं।

प्रश्न 2. परशुराम के क्रोध करने पर राम और लक्ष्मण की जो प्रतिक्रियाएँ हुईं उनके आधार पर दोनों के स्वभाव की विशेषताएँ अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर:- राम स्वभाव से कोमल और विनयी हैं। परशुराम जी क्रोधी स्वभाव के थे। परशुराम के क्रोध करने पर श्री राम ने धीरज से काम लिया। उन्होंने स्वयं को उनका दास कहकर परशुराम के क्रोध को शांत करने का प्रयास किया एवं उनसे विनम्रता से बात की। लक्ष्मण राम से एकदम विपरीत हैं। लक्ष्मण क्रोधी और उग्र स्वभाव के हैं। लक्ष्मण परशुराम जी के साथ व्यंग्यपूर्ण वचनों का सहारा लेकर अपनी बात उनके समक्ष प्रस्तुत करते हैं। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि उनकी बातों से परशुराम और ज्यादा क्रोधित हो जायेगें। राम विनम्र, मृदुभाषी,धैर्यवान, व बुद्धिमान हैं वहीं दूसरी ओर लक्ष्मण निडर,वाचाल, साहसी तथा क्रोधी स्वभाव के हैं।

प्रश्न 3. लक्ष्मण और परशुराम के संवाद का जो अंश आपको सबसे अच्छा लगा उसे अपने शब्दों में संवाद शैली में लिखिए।

उत्तर:- लक्ष्मण – हे मुनि ! बचपन में तो हमने कितने ही धनुष तोड़ दिए परन्तु आपने कभी क्रोध नहीं किया इस धनुष से आपको विशेष लगाव क्यों हैं ?

परशुराम – अरे, राजपुत्र ! तू काल के वश में आकर ऐसा बोल रहा है। तू क्यों अपने माता-पिता को सोचने पर विवश कर रहा है। यह शिव जी का धनुष है। चुप हो जा और मेरे इस फरसे को भली भाँति देख ले। मेरे इस फरसे की भयानकता गर्भ में पल रहे शिशुओं को भी नष्ट कर देती है।






प्रश्न 4. परशुराम ने अपने विषय में सभा में क्या-क्या कहा, निम्न पद्यांश के आधार पर लिखिए –

बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही||

भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही||

सहसबाहुभुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा||

मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।

गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर||

उत्तर:- परशुराम ने अपने विषय में कहा कि वे बाल ब्रह्मचारी और क्रोधी स्वभाव के हैं। समस्त विश्व में क्षत्रिय कुल के द्रोही के रुप में विख्यात हैं। उन्होंने अनेक बार पृथ्वी को क्षत्रियों से विहीन कर ब्राह्मणों को दान में दे दियाऔर अपने हाथ में धारण इस फरसे से सहस्त्रबाहु की भुजाओं को काट डाला है। इसलिए हे नरेश पुत्र। मेरे इस फरसे को भली भाँति देख ले। राजकुमार। त क्यों अपने माता-पिता को सोचने पर विवश कर रहा है। मेरे इस फरसे की भयानकता गर्भ में पल रहे शिशुओं को भी नष्ट कर देती है।

प्रश्न 5. लक्ष्मण ने वीर योद्धा की क्या-क्या विशेषताएँ बताई ?

उत्तर:- लक्ष्मण ने वीर योद्धा की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई है –

(1) शूरवीर युद्ध में वीरता का प्रदर्शन करके ही अपनी शूरवीरता का परिचय देते हैं व्यर्थ में अपना बखान नहीं करते।

(2) वीरता का व्रत धारण करने वाले वीर पुरुष धैर्यवान और क्षोभरहित होते हैं।

(3) वीर पुरुष स्वयं पर कभी अभिमान नहीं करते।

(4) वीर पुरुष किसी के विरुद्ध गलत शब्दों का प्रयोग नहीं करते।

(5) वीर पुरुष दीन-हीन, ब्राह्मण व गायों, दुर्बल व्यक्तियों पर अपनी वीरता का प्रदर्शन नहीं करते एवं अन्याय के विरुद्ध हमेशा निडर भाव से खड़े रहते हैं।

(6) किसी के ललकारने पर वीर पुरुष परिणाम की फ़िक्र न कर निडरतापूर्वक उनका सामना करते हैं।

प्रश्न 6. साहस और शक्ति के साथ विनम्रता हो तो बेहतर है। इस कथन पर अपने विचार लिखिए।

उत्तर:- साहस और शक्ति के साथ अगर विनम्रता न हो तो व्यक्ति अभिमानी एवं उदंड बन जाता है। साहस और शक्ति ये दो गुण व्यक्ति (वीर) को श्रेष्ठ बनाते हैं परन्तु यदि विनम्रता इन गुणों के साथ आकर मिल जाती है तो वह उस व्यक्ति को श्रेष्ठतम वीर की श्रेणी में ला देती है। विनम्रता व्यक्ति में सदाचार व मधुरता भर देती है। विनम्र व्यक्ति किसी भी स्थिति को सरलता पूर्वक संभाल सकता है। परशुराम जी साहस व शक्ति का संगम है। राम विनम्रता, साहस व शक्ति का संगम है। राम की विनम्रता के आगे परशुराम जी के अहंकार को भी नतमस्तक होना पड़ा।

प्रश्न 7. भाव स्पष्ट कीजिए

1-बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी||

पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फँकि पहारू।।

उत्तर:- प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस से ली गई हैं। उक्त पंक्तियों में लक्ष्मण जी ने परशुराम जी के द्वारा बोले गए अपशब्दों का प्रत्युत्तर दिया है। भाव – लक्ष्मणजी ने हँसते हुए कोमल वाणी से परशुराम पर व्यंग्य करते हुए कहा , मुनीश्वर अपने को बड़ा भारी योद्धा समझते हैंऔर मुझे बार-बार अपना फरसा दिखाकर डरा रहे हैं। जिस तरह एक फूंक से पहाड़ नहीं उड़ सकता उसी प्रकार मुझे बालक समझने की भूल मत कीजिए कि मैं आपके इस फरसे को देखकर डर जाऊँगा।

2-इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं।।

देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना||

उत्तर:- प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस से ली गई हैं। उक्त पंक्तियों में लक्ष्मण जी ने परशुराम जी के द्वारा बोले गए अपशब्दों का प्रत्युत्तर दिया है। भाव – भाव यह है कि लक्ष्मण जी अपनी वीरता का अभिमानपूर्वक परिचय देते हुए कहते हैं कि हम कोई छुई मुई के फूल नहीं हैं जो तुम्हारी तर्जनी देखकर मुरझा जाएँ। हम बालक अवश्य हैं परन्तु फरसे और धनुष-बाण हमने भी बहुत देखे हैं इसलिए हमें नादान बालक समझने की भूल न करें।

3-गाधिसनु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ।

अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँन बूझ अबूझ ||

उत्तर:- प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस से ली गई हैं। उक्त पंक्तियों में परशुराम जी के वचनों को सुनकर विश्वामित्र मन ही मन परशुराम जी की बुद्धि पर हँसते हैं। भाव-परशुराम बार-बार कहते हैं कि मैं लक्ष्मण को पलभर में मार दूंगा।यह सुन कर विश्वामित्र मन ही मन कहते हैं कि गाधि-पुत्र अर्थात् परशुराम जी को चारों ओर हरा ही हरा दिखाई दे रहा है। जिन्हें ये गन्ने की खाँड़ समझ रहे हैं वे तो लोहे से बनी तलवार (खड़ग) की भाँति हैं। इस समय परशुराम की स्थिति सावन के अंधे की भाँति हो गई है। जिन्हें चारों ओर हरा ही हरा दिखाई दे रहा है अर्थात उनकी समझ अभी क्रोध व अहंकार के वश में है।

प्रश्न 8. पाठ के आधार पर तुलसी के भाषा सौंदर्य पर दस पंक्तियाँ लिखिए।

उत्तर:- तुलसीदास रससिद्ध कवि हैं। उनकी काव्य भाषा सरस है। तुलसीदास द्वारा लिखित रामचरितमानस अवधी भाषा में लिखी गई है। यह काव्यांश रामचरितमानस के बालकांड से ली गई है। तुलसीदास ने इसमें दोहा,, चौपाई छंदो का बहुत ही सुंदर प्रयोग किया है। जिसके कारण काव्य के सौंदर्य तथा आनंद में वृद्धि हुई है और भाषा में लयबद्धता बनी रहती है। भाषा को कोमल बनाने के लिए कठोर वर्गों की जगह कोमल ध्वनियों का प्रयोग किया गया है। इनकी भाषा में अनुप्रास अलंकार, रुपक अलंकार, उत्प्रेक्षा अलंकार,व पुनरुक्ति अलंकार की अधिकता मिलती है। इस काव्यांश की भाषा में व्यंग्यात्मकता का सुंदर संयोजन हुआ है।







प्रश्न 9. इस पूरे प्रसंग में व्यंग्य का अनूठा सौंदर्य है। उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:- तुलसीदास द्वारा रचित परशुराम – लक्ष्मण संवाद मूल रूप से व्यंग्य काव्य है। उदाहरण के लिए –

(1) बहु धनुही तोरी लरिकाईं।

कबहुँ नअसि रिस कीन्हि गोसाईं।।

लक्ष्मण जी परशुराम जी से धनुष के टूटने पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि हमने अपने बालपन में ऐसे अनेक धनुष तोड़े हैं तब हम पर किसी ने क्रोध नहीं किया।

(2) मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।

गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥

परशुराम जी क्रोधित होकर लक्ष्मण से कहते है। अरे राजा के बालक! तू अपने माता-पिता को सोचने के लिए विवश न कर। मेरा फरसा बड़ा भयानक है, यह गर्भ के बच्चों का भी नाश कर देता है।

(3) गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ।

अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ ||

यहाँ विश्वामित्र जी परशुराम की बुद्धि पर मन ही मन व्यंग्य करते हैं और कहते हैं कि परशुराम जी जिन राम, लक्ष्मण को साधारण बालक समझ रहे हैं। उन्हें चारों ओर हरा ही हरा सूझ रहा है वे लोहे की तलवार की गन्ने की खाँड़ से तुलना कर रहे हैं।

प्रश्न 10. निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार पहचान कर लिखिए

1-बालकु बोलि बधौं नहि तोही।

अनुप्रास अलंकार – उक्त पंक्ति में ‘ब’ वर्ण की एक से अधिक बार आवृत्ति हुई है, इसलिए यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

2-कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा।

(1) अनुप्रास अलंकार – उक्त पंक्ति में ‘क’ वर्ण की एक से अधिक बार आवृत्ति हुई है, इसलिए यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

(2) उपमा अलंकार – कोटि कुलिस सम बचनु में उपमा अलंकार है। क्योंकि परशुराम जी के एक-एक वचनों को वज्र के समान बताया गया है।

3-तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा||

(1) उत्प्रेक्षा अलंकार – ‘काल हाँक जनु लावा’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है। यहाँ जनु उत्प्रेक्षा का वाचक शब्द है।

(2) पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार – ‘बार-बार’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है। क्योंकि बार शब्द की दो बार आवृत्ति हुई पर अर्थ भिन्नता नहीं है।

4-लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु।

बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु।।

(1) उपमा अलंकार

(i) उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु में उपमा अलंकार है।

(ii) जल सम बचन में भी उपमा अलंकार है क्योंकि भगवान राम के मधुर वचन जल के समान कार्य रहे हैं।

(2) रुपक अलंकार – रघुकुलभानु में रुपक अलंकार है यहाँ श्री राम को रघुकुल का सूर्य कहा गया है। श्री राम के गुणों की समानता सूर्य से की गई है।






रचना-अभिव्यक्ति

प्रश्न 1. ‘ सामाजिक जीवन में क्रोध की जरूरत बराबर पड़ती है। यदि क्रोध न हो तो मनुष्य दूसरे के द्वारा पहुँचाए जाने वाले बहुत से कष्टों की चिर-निवृत्ति का उपाय ही न कर सके।’

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का यह कथन इस बात की पुष्टि करता है कि क्रोध हमेशा नकारात्मक भाव लिए नहीं होता बल्कि कभीकभी सकारात्मक भी होता है। इसके पक्ष या विपक्ष में अपना मत प्रकट कीजिए।

उत्तर:-

पक्ष में विचार – क्रोध बुरी बातों को दूर करने में हमारी सहायता करता है। जैसे अगर विद्यार्थी पढ़ाई में ध्यान न दे और शिक्षक उस पर क्रोध न करे तो वह विद्यार्थी का भविष्य कैसे उज्वल होगा ?यदि कोई लोगों पर अन्याय कर रहा है और लोग बिना क्रोध किए देखते रहें तो न्याय की रक्षा कैसे होगी?

विपक्ष में विचार – क्रोध एक चक्र है जो चलता ही रहता है। आप किसी पर क्रोध करेंगे तो वह भी आप पर क्रोधित होगा, उनका क्रोध देखकर आप और क्रोधित होगे। इस प्रकार क्रोध में आप प्रथम स्वंय को ही हानि पहुँचाते है। क्रोध करने से आपकी सेहत खराब हो सकती है और समय का भी अपव्यय होता है।

प्रश्न 2. संकलित अंश में राम का व्यवहार विनयपूर्ण और संयत है, लक्ष्मण लगातार व्यंग्य बाणों का उपयोग करते हैं और परशुराम का व्यवहार क्रोध से भरा हुआ है। आप अपने आपको इस परिस्थिति में रखकर लिखें कि आपका व्यवहार कैसा होता।

उत्तर:- मेरा व्यवहार राम और लक्ष्मण के बीच का होता। मैं लक्ष्मण की तरह परशुराम के अहंकार को दूर जरूर करता किन्तु उनका अपमान न करता। मैं शायद अपनी बात लक्ष्मण की तरह ज़ोर-ज़ोर से बोलकर उनके समक्ष रखता, अगर वे सुनते तो राम की तरह विनम्रता और शांति से उन्हें समझाता।

प्रश्न 3. अपने किसी परिचित या मित्र के स्वभाव की विशेषताएँ लिखिए।

उत्तर:- इस प्रसंग से मुझे अपने तीसरी कक्षा के मास्टर जी की याद आती है। उनका नाम मनोहर शर्मा था। उनका स्वभाव बहुत कठोर था। वे बहुत गंभीर रहते थे। स्कूल में उन्हें कभी हँसते या मुस्कराते नहीं देखा जाता था। वे विद्यार्थियों को कभी-कभी ‘मुर्गा’ भी बनाते थे। सभी छात्र उनसे भयभीत रहते थे। सभी लड़के उनसे बहुत डरते थे क्योंकि उनके जैसा सख्त अध्यापक न कभी किसी ने देखा न सुना था।

प्रश्न 4. दूसरों की क्षमता को कम नहीं समझना चाहिए – इस शीर्षक को ध्यान में रखते हुए एक कहानी लिखिए।

उत्तर:- हमारी कक्षा में राजीव जैसे ही प्रवेश करता था,सभी उसे लंगड़ा-लंगड़ा कहकर संबोधित करने लगते थे। राजीव बचपन से ऐसा नहीं था किसी दुर्घटना के शिकार स्वरुप उसकी यह हालत हो गयी थी। राजीव की सहायता करने की बजाय सभी उसका मजाक उड़ाने लगते थे परन्तु राजीव किसी से कुछ न कहता न बोलता चुपचाप अपना काम करते रहता और न ही कभी किसी शिक्षक से बच्चों की शिकायत न करता। ऐसे लगता मानो वह किसी विचार में खोया है। सारे बच्चे दिनभर उधम मचाते उसे तंग करते रहते थे परन्तु वह हर समय पढाई में मग्न रहता और इसका परिणाम यह निकला कि जब विद्यालय का दसवीं का वार्षिक परिणाम निकला तो सब विद्यार्थियों की आँखें फटी की फटी रही गईं क्योंकि राजीव अपने विद्यालय ही नहीं बल्कि पूरे राज्य में प्रथम आया था। वही विद्यार्थी जो कल तक उस पर हँसते थे आज उसकी तारीफों के पुल बाँध रहे थे। उसकी शारीरिक क्षमता का उपहास उड़ाने वालों का राजीव ने अपनी प्रतिभा से मुँह सिल दिया था। चारों ओर राजीव के ही चर्चे थे। आज के इस प्रतिस्पर्धात्मक युग में पूर्ण अंगों वाले विद्यार्थी भी पूर्ण सफलता पाने में असमर्थ हैं। ऐसे में में एक विकलांग युवक की इस सफलता से यही पता चलता है कि कोई भी व्यक्ति अपूर्ण नहीं है। हमें लोगों को उन्हें शारीरिक क्षमता से नहीं बल्कि प्रतिभा से आँकना चाहिए।

प्रश्न 5. उन घटनाओं को याद करके लिखिए जब आपने अन्याय का प्रतिकार किया हो।

उत्तर:- अन्याय करना और सहना दोनों ही अपराध माने जाते हैं। मेरे पड़ोस में एक गरीब परिवार रहता है। एक दिन उनके यहाँ से बच्चों के रोने की आवाज आ रही थी। हमने जाकर देखा तो बच्चों के पिता उन्हें मजदूरी पर न जाने की वजह से पीट रहे थे। हमारे मुहल्लेवालों ने मिलकर अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई और बच्चों को उनका शिक्षा प्राप्त करने का हक दिलाया।

प्रश्न 6. अवधी भाषा आज किन-किन क्षेत्रों में बोली जाती है?

उत्तर:- आज अवधी भाषा मुख्यत: अवध में बोली जाती है। यह उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों जैसे – गोरखपुर, गोंडा, बलिया, अयोध्या आदि क्षेत्र में बोली जाती है।





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